बयाँ हो किस तरह सोज़-ओ-अलम की दास्ताँ मेरी न साथी कोई सुनता है न मीर-ए-कारवाँ मेरी मिरा शौक़-ए-तकल्लुम मुझ को किस महफ़िल में ले आया यहाँ तो बात करने को तरसती है ज़बाँ मेरी ज़बाँ पर सब्त गर मोहर-ए-सितमगर है तो क्या ग़म है कि मेरी ख़ामुशी ही बन रही है अब ज़बाँ मेरी मुझे ऐ बाग़बाँ शिकवा हो क्यों क़ैद-ओ-सलासिल का कि अब सारे चमन की दास्ताँ है दास्ताँ मेरी निशाँ तो मिट गया सय्याद मेरे आशियाने का चमन में हर तरफ़ बिखरी है ख़ाक-ए-आशियाँ मेरी कुछ ऐसा सोज़ पिन्हाँ था मिरे अंदाज़-ए-गिर्या में चमन वालों ने मिल कर लूट ली तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ मेरी जहाँ में किस तरह मुझ को सुकून-ए-क़ल्ब हासिल हो बनी है ज़िंदगी ही जब सरापा इम्तिहाँ मेरी मेरी सहरा-नवर्दी पर न हो हैरान ऐ हमदम अभी है आरज़ू-ए-आबला-पाई जवाँ मेरी ये दिल है या कि है नाकाम उम्मीदों का गहवारा कि हर ख़्वाहिश है हसरत-ख़ेज़ हर हसरत जवाँ मेरी 'सईद' अपना वतन हर आन ही आँखों में रहता है उसी की याद गोया बन गई है जान-ए-जाँ मेरी