बयाँ क्या कीजिए सोज़-ए-दरूँ को दास्तानों में निकल के तीर कब आते हैं वापस फिर कमानों में हमारी सोच के बादल हैं उड़ते आसमानों में करेगी याद ये दुनिया हमें आते ज़मानों में सभी मिल कर बिछड़ जाएँ अगर गुमनाम हो जाएँ मकीं फिर किस लिए बस्ते हैं इन ऊँचे मकानों में रहे वहशत-ज़दा के साथ तो वहशत मिली हर दम वो ही वहशत रही मन में सभी मौसम सुहानों में चुरा के ख़्वाब वो मेरे चला तो ये ख़याल आया क़लम की नोक से लिख दूँ अलम ये सब लिसानों में जो सच कहते हैं वो ही जावेदाँ रहते हैं आलम में छुपाया जा नहीं सकता हक़ीक़त को फ़सानों में ज़मीं सरसब्ज़ है फ़स्लें भी कैसी लहलहाती हैं अमीर-ए-शहर ने ख़िर्मन जो बाँटा है किसानों में वफ़ा के नाम पर हरगिज़ हिना ख़ामोश मत रहना कभी वो लौट आएँगे तुम्हारी दास्तानों में