बयान-ए-हाल मुफ़स्सल नहीं हुआ अब तक जो मसअला था वही हल नहीं हुआ अब तक नहीं रहा कभी मैं इस की दस्तरस से दूर मिरी नज़र से वो ओझल नहीं हुआ अब तक बिछड़ के तुझ से ये लगता था टूट जाऊँगा ख़ुदा का शुक्र है पागल नहीं हुआ अब तक जलाए रक्खा है मैं ने भी इक चराग़-ए-उमीद तुम्हारा दर भी मुक़फ़्फ़ल नहीं हुआ अब तक मुझे तराश रहा है ये कौन बरसों से मिरा वजूद मुकम्मल नहीं हुआ अब तक दराज़ दस्त-ए-तमन्ना नहीं किया मैं ने करम तुम्हारा मुसलसल नहीं हुआ अब तक बरस कुछ और मिरी जान टूट के मुझ पर ये ख़ित्ता जिस्म का जल-थल नहीं हुआ अब तक न आया बाज़ वो 'नायाब' अपनी फ़ितरत से वफ़ा का शहर भी जंगल नहीं हुआ अब तक