बाइ'स-ए-आसूदगी है हश्र-सामानी मुझे रास आती है बड़ी मुश्किल से आसानी मुझे देख कर तेरी इनायत और तिरा लुत्फ़-ओ-करम खल रही है यार अपनी तंग-दामानी मुझे कर रहा है ज़ेहन में गर्दिश कोई धुँदला सा अक्स लग रही है उस की सूरत जानी पहचानी मुझे सोचने का ज़ाविया मैं ने बदल डाला है दोस्त अब परेशानी नहीं लगती परेशानी मुझे सौंप दी उस ने मुझे अपने बदन की सल्तनत मिल गई हो मुफ़्लिसी में जैसे सुल्तानी मुझे लुक़्मा-ए-गिर्दाब होने ही को था मैं और फिर दफ़अ'तन आई नज़र इक मौज-ए-इमकानी मुझे आज फिर खुलने लगी है मुझ पे रम्ज़-ए-काएनात आज फिर होने लगी है ख़ुद पे हैरानी मुझे सोचता हूँ ऊला मिसरा जब कभी 'नायाब' मैं ख़ुद को लिखवाता है बढ़ कर मिस्रा-ए-सानी मुझे