बयान-ए-शौक़ को मफ़्हूम से जुदा न करे सदा वही है जो लफ़्ज़ों को बे-सदा न करे किरन किरन ने सँभल कर ये हम को दर्स दिया मिसाल-ए-अश्क कोई आँख से गिरा न करे हवा के झोंकों से ख़ुशबू के पर्दे हिलते हैं हरीम-ए-लाला-ओ-गुल में कोई छुपा न करे हमारी आँखें शब-ओ-रोज़ जैसे जलती हैं कोई चराग़ जले भी तो यूँ जला न करे हमें चराग़ भी हैं और हमें हवा भी हैं हमारी ज़ीस्त पे अब कोई तब्सिरा न करे बढ़ेगी और भी कुछ फ़ासलों की तन्हाई जो तेज़-गाम है वो राह में रुका न करे तिरे ख़याल तिरी याद में जो गुज़रा है कभी वो लम्हा किसी जा पे आशियाना करे सदा-ए-ग़म से लरज़ती है ज़िंदगी 'मुतरिब' लचकती शाख़ से भी फूल अब गिरा न करे