बज़्म-ए-जानाँ से लौट कर आए फूल दामन में अपने भर लाए बात ही हम-नफ़स कुछ ऐसी थी उन की महफ़िल में जा के लौट आए आशियाँ तो बना के दम लूँगा बर्क़-ए-ख़ातिफ़ हज़ार लहराए रौशनी है न कुछ उजाला है हर तरफ़ ज़ुल्मतों के हैं साए तेरा दर छोड़ के ऐ जान-ए-वफ़ा कोई जाए तो फिर कहाँ जाए क्या वो आए मिरे तसव्वुर में मुझ को बीते ज़माने याद आए ज़ख़्म ही दिल का भर गया शायद वर्ना होंटों पे यूँ हँसी आए जानता है सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद कोई दिल को मिरे न समझाए दर्द-ए-दिल कहते हैं जिसे 'अंजुम' उन की मुसहफ़ से ले के हम आए