ज़र्द पिंजर हिनहिनाए सामने खाई न थी जिस का ख़दशा हम को भी था वो घड़ी आई न थी पारा पारा जिस्म-ओ-जाँ ला-मनज़री गुम-गश्तगी थी क़बा आरास्ता शमशीर लहराई न थी काट कर दस्त-ए-दुआ' जेबों में रख कर चल दिए धूप सँवलाई थी बंजर पर घटा छाई न थी रात-भर मा'बद में रक़्स-ए-आतिशीं होता रहा बर्फ़ पलकों से हटाने की तवानाई न थी राहवार-ए-अब्र पर आए थे जाने क्या हुए हम भी चल के आए थे पानी में गहराई न थी साहिलों पर सब उमड आए घरों को छोड़ कर हम समझते थे किसी से भी शनासाई न थी