बे-क़रारी है कि आसार ये झंझट के हैं वसवसे इन दिनों दिल में नई आहट के हैं वो न आए तो उतरते नहीं पानी में बतख़ उस के नक़्क़ाल भी दिल बाख्ता पनघट के हैं छेड़ते हैं मुझे महरूम-ए-तमन्ना कह कर एक दो इन में यक़ीनन उसी नटखट के हैं है ये दुनिया बड़ी हर्राफ़ा मगर दिल वाले ख़ूगर-ए-ग़म हैं अज़ल से तिरी चौखट के हैं हम मुक़ल्लिद हैं तिरे है हमें मर्ग़ूब जमाल और वो लोग समझते हैं कि हम भटके हैं कोई परख़ाश पे उकसाता नहीं हज़रत को या'नी बदनाम ज़ियादा ही मिरे झटके हैं इतना फूलें न कई घाट का पानी पी कर टूट जाएँगे कि मिट्टी ही के सब मटके हैं हज़्म होंगे न ये अशआ'र तो सिफली नाक़िद क़य करेंगे कि वो कारिंदे मिलावट के हैं अपने हम-अस्रों में मुम्ताज़ नहीं हैं लेकिन 'सरफ़राज़-आज़मी’ लोगों से ज़रा हट के हैं