बे-रुख़ी ने उस की मुझ को कर दिया महफ़िल से दूर वो हमारे दिल में है और हम हैं उस के दिल से दूर उमडे तूफ़ानों में भी है कश्ती-ए-उल्फ़त रवाँ हम कभी नज़दीक होते हैं कभी साहिल से दूर इश्क़ की वादी को तय करना कोई आसाँ नहीं गामज़न पैहम रहे फिर भी रहे मंज़िल से दूर टुकड़े टुकड़े कर के रख देते हैं ख़ंजर की तरह दिल जिगर ऐ लोगो रखना अबरू-ए-क़ातिल से दूर बहर-ए-उल्फ़त का किनारा अहल-ए-दिल नापैद है जिस को साहिल समझे हो वो मौज है साहिल से दूर नित-नई दुश्वारियाँ राह-ए-वफ़ा में सह के हम चलते चलते थक गए जब फिर न थे मंज़िल से दूर कहता है बे-अक़्ल नासेह इश्क़ को दीवानगी इश्क़ के दीवानो रहना नाम के आक़िल से दूर रक़्स-ए-बिस्मिल का तमाशा तो किया होता हुज़ूर कर के बिस्मिल हो गए किस वास्ते बिस्मिल से दूर वो मोहब्बत करने वाले दिल जो मिलते हैं कभी लाख दुनिया चाहे होते हैं बड़ी मुश्किल से दूर गर मसीहा होते करते ज़ख़्म-ए-दिल का कुछ इलाज और ज़ख़्मी कर के वो तो हो गए घाइल से दूर आस्तान-ए-यार पर पहूँचा तलब जिस दिल में थी दामन-ए-महबूब रहता है सदा ग़ाफ़िल से दूर दिल 'फ़ज़ा' का बुझ गया अंधेर दुनिया हो गई हो गया जिस रोज़ से वो उस मह-ए-कामिल से दूर