ये ज़ख़्म-हा-ए-ग़म-ए-मोहब्बत ये दाग़-हा-ए-ग़म-ए-ज़माना इन्हीं चराग़ों के दम से रौशन रहा है दिल का ग़रीब-ख़ाना वो फ़ित्ने जाग उट्ठे आँख मिलते वो ज़लज़ले ले रहे हैं करवट ज़रा तसव्वुर में आ गया था ख़याल-ए-ता'मीर-ए-आशियाना कभी शिकायत कि बेवफ़ा हूँ कभी ख़फ़ा अर्ज़-ए-मुद्दआ पर मिरे सताने को मिल ही जाता है आप को कुछ न कुछ बहाना इन्हीं पे है लुत्फ़-ए-बर्क़-ओ-बाराँ करम उन्हीं पर है बाग़बाँ का मिरे नशेमन के चार तिनके हैं मरकज़-ए-गर्दिश-ए-ज़माना ये कोहना-साली में 'बद्र' तुम को ग़ज़ल-सराई की ख़ूब सूझी न अब वो रंगीनी-ए-तख़य्युल न अब वो जज़्बात-ए-शाइ'राना