बे-सबाती के हैं या इसबात के चारों तरफ़ शहर में चर्चे हैं ये किस बात के चारों तरफ़ एक मेरी ज़ात से रौशन है वहशत का मकाँ दिन के हंगामे हैं रक़्साँ रात के चारों तरफ़ एक नख़लिस्तान भी होता है सहराओं के बीच क्या हुआ जो ग़म हैं मेरी ज़ात के चारों तरफ़ मक़्तल-ए-एहसास पे रक्खी हैं दो आँखें मिरी कितने लाशे हैं जवाँ जज़्बात के चारों तरफ़ मकड़ियों ने बुन दिए जाले न जाने किस लिए कौन दुश्मन है यहाँ खंडरात के चारों तरफ़ अब भी ज़िंदा हैं यज़ीदी अब भी तिश्ना हैं इमाम अब भी दुश्मन हैं बहुत सादात के चारों तरफ़ तुम को क्या मालूम तुम फूलों के शैदाई 'ज़िया' कोई सहरा भी है इन बाग़ात के चारों तरफ़