भूल पाया न वो आँखें न वो चेहरा ता-उम्र कैसा मंज़र था मिरी आँख में खटका ता-उम्र ज़िंदगी तुझ से मिरा इश्क़ भी आसान न था पार करता रहा मैं आग का दरिया ता-उम्र रात की रानी महकती रही घर के अंदर और बाहर रहा ख़ुर्शीद का पहरा ता-उम्र भूल जाने का अमल भी कोई आसान न था अश्क बन-बन के लहू आँख से टपका ता-उम्र मैं तही-दस्त रहा अपनी ही वहशत का शिकार और करती रही दुनिया मिरा पीछा ता-उम्र अपने क़दमों से कभी उस को निकलने न दिया मुझ से बद-ज़न रहा ख़ुद मेरा ही साया ता-उम्र सारी ख़ुशबू तो मिरे घर के दर-ओ-बाम में थी मैं 'ज़िया' किस के लिए दश्त में भटका ता-उम्र