बे-तह मिरी नज़र है कि ख़ुद कम-नज़र हूँ मैं अज़-बस इसी ख़याल से ज़ेर-ओ-ज़बर हूँ मैं जिस को गुमान है कि मैं हूँ साहिब-ए-कमाल उस को ख़बर नहीं कि बहुत बे-ख़बर हूँ मैं फ़रमान-ए-दीद दिल को दूँ या दूँ दिमाग़ को इस बात की समझ से अभी दूर-तर हूँ मैं ज़ाहिर में ख़ामुशी के किसी शय में हूँ ढला दर-अस्ल अपने आप में इक शोर-ओ-शर हूँ मैं रौशन हुआ ये मेरे सुख़न से जहान पर इस दौर-ए-मश्क़-ए-जौर का इक नौहागर हूँ मैं तक़दीर अपनी मुझ को न आई सँवारनी लेकिन ब-ज़ो'म-ए-आप बड़ा ज़ी हुनर हूँ मैं ऐ रब्ब-ए-ज़ुल-जलाल मुझे बख़्श आगही दुनिया के पेच-ओ-ख़म में उलझ कर किधर हूँ मैं 'अमजद' पे हो करम की नज़र मालिक-ए-जहाँ तेरी अता से ख़ूब से भी ख़ूब-तर हूँ मैं