कभी जलता बदन देखा कभी उठता धुआँ पाया गुनाहों के तसलसुल से अज़ाब-ए-जाँ रवाँ पाया रुमूज़-ए-बंदगी हम पर खुले उन के वसीले से जिन्हें आलम ने रहमत का मुहीत-ए-बे-कराँ पाया मुक़द्दर से भला क्यूँकर न अहल-ए-दिल करें शिकवा कि शम-ए-जाँ जला कर भी अंधेरा दरमियाँ पाया भरम अपनी ख़िरद-मंदी का टूटा उस घड़ी जिस दम हबाब-ए-दजला में हम ने समुंदर को निहाँ पाया बहार आई चमन में और असीरान-ए-क़फ़स ने भी नई रुत की हवा पाई नया इक पासबाँ पाया मिरा सर देख कर बोले मिरे अहबाब दुश्मन से ये किस सरकश का सर है जो सर-ए-नोक-ए-सिनाँ पाया न ग़ुंचा का न बुलबुल का न ही बाद-ए-बहारी का चमन में तो फ़क़त हम ने निशान-ए-कुश्तगाँ पाया ख़ुद अपनी ज़ात में हम क़ैद हो कर रह गए 'अमजद' दिल-ए-नादाँ को हम ने भी वगर्ना ख़ूँ-चकाँ पाया