बे-असर आरज़ू बे-असर है दुआ बा-असर है फ़क़त एक उस की रज़ा वो गुनहगार महशर में बख़्शा गया रहमत-ए-हक़ पे जिस ने भरोसा किया ज़िंदगी ने मुझे मुँह लगाया न जब मुँह चिढ़ाने लगी मेरा ज़ालिम क़ज़ा दस्त-ए-क़ुदरत में मैं इक खिलौना सा हूँ किस लिए है गुनाहों की मुझ को सज़ा नौजवानी में तो महव-ए-इशरत रहे अब बुढ़ापे में आई है याद-ए-ख़ुदा दिल किसी के तसव्वुर में खोया रहे दर्द-ए-दिल की यही है फ़क़त इक दवा वक़्त ऐसा भी आता है इंसान पर होना पड़ता है मैदाँ में तन्हा खड़ा जाने क्यों आज 'लाग़र' ने चुप साध ली वर्ना वो रोज़ देता था हक़ की सदा