बे-दम हुए यूँ हो के गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत कहता है मसीहा कि हूँ बीमार-ए-मोहब्बत रोता है शब-ए-हिज्र में दिल ख़ून के आँसू मिलता नहीं कोई उसे ग़म-ख़्वार-ए-मोहब्बत इन हुस्न की गलियों में ख़रीदार बहुत हैं लगता है शब-ओ-रोज़ ये बाज़ार-ए-मोहब्बत अल्फ़ाज़ हैं ख़ंजर तो बुझा ज़हर में लहजा ऐसे में भला कैसे हो इक़रार-ए-मोहब्बत अब इश्क़ है रुस्वा तो बिगड़ता है तिरा क्या बे-कार में करता है तू पैकार-ए-मोहब्बत मिट जाएँगे हम उन को ख़बर तक नहीं होगी ये सोच के करना पड़ा इज़हार-ए-मोहब्बत अब देखें वहाँ कौन लगाए नई बोली आते हैं जहाँ रोज़ ख़रीदार-ए-मोहब्बत तन्हाई में सोचा तुझे जाना तुझे समझा फिर खुलने लगे हम पे भी असरार-ए-मोहब्बत 'तिश्ना' से करें लोग मोहब्बत की जो बातें कैसे मैं बताऊँ कि हूँ बे-ज़ार-ए-मोहब्बत