बेदार की निगाह में कल और आज क्या लम्हों से बे-नियाज़ का कोई इलाज क्या क़द्रें भटक रही हैं अभी खंडरात में हम अहद-ए-इर्तिक़ा से वसूलें ख़िराज क्या हर ज़ेहन बे-लगाम है हर फ़िक्र बे-क़यास आज़ाद नस्ल-ओ-क़ौम के रस्म-ओ-रिवाज क्या किस को वहाँ पे कीजिए तफ़रीक़-आश्ना जिस का जहाँ लगाओ न हो एहतिजाज क्या ज़िंदा हो जब ज़मीर तो लाज़िम है एहतियात पलकों की छावनी में निगाहों की लाज क्या कोई भी रुत हो भूक की फ़सलें उगाइए हम ईंट बो रहे हैं तो पाएँ अनाज क्या मौसम को चाहिए न मिरी पैरवी करे 'शाइक' असीर-ए-दर्द का अपना मिज़ाज क्या