बे-हिसी की भीड़ में वो खो गया ख़ौफ़ था जिस का वही कल हो गया हर क़दम पर पाँव क्यूँ ज़ख़्मी हुए राह-ए-हक़ में कौन काँटे बो गया रात-भर तो चाँद जागा मेरे साथ फिर सहर के वक़्त थक कर सो गया माँ ने बस पानी उबाला रात-भर रोते रोते उस का बच्चा सो गया वो कहीं का भी न 'मज़हर' हो सका हाथ को मुझ से छुड़ा कर जो गया