बेहतर नहीं रहा कभी कमतर नहीं रहा मैं ज़ीस्त में किसी के बराबर नहीं रहा दश्त-ए-फ़िराक़ धूप ग़ज़ब की सफ़र नसीब साया भी उस की याद का सर पर नहीं रहा इस अहद-ए-सख़्त-गीर में ये छूट है बहुत बाहर फिरा है तू कभी अंदर नहीं रहा आज़ाद हो गया हूँ हुकूमत की क़ैद से इस मुल्क में मिरा कोई दफ़्तर नहीं रहा मैं हूँ फ़िदा-ए-सुन्नत-ए-मंसूर 'आफ़्ताब' सादिक़ नहीं रहा कभी जाफ़र नहीं रहा