ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था मगर ये जज़्बा ब-नाम-ए-जुनूँ मुआफ़ न था पिघल तो सकता है लोहा निगाह-ए-अज़्म तो हो ये पहले क़ैद की दीवार में शिगाफ़ न था हसद की गर्द थीं बुग़्ज़ और नफ़रत की मिरे वजूद पे ऐसा कोई ग़िलाफ़ न था उलझ रहे हैं बहुत लोग मेरी शोहरत से किसी को यूँ तो कोई मुझ से इख़्तिलाफ़ न था तिरे जमाल से महफ़िल में अब सुकून सा है वगरना ज़ेहन किसी का किसी से साफ़ न था मिरा नसीब कि कश्ती किनारे लग न सकी हवा का झोंका तो वैसे मिरे ख़िलाफ़ न था जदीद लहजा ये अंदाज़ किस लिए 'बेकल' तुझे तो हुस्न-ए-रिवायत से इंहिराफ़ न था