जिधर भी जाऊँ यही सिलसिला निकलता है तुम्हारे घर की तरफ़ रास्ता निकलता है मैं एक उम्र से उन दाएरों का क़ैदी हूँ क़दम जहाँ भी रखूँ दायरा निकलता है मैं आज़माने चला हूँ जहाँ पे जिंस-ए-ख़ुलूस नज़र नज़र से वहाँ ज़हर सा निकलता है जो शख़्स जान से प्यारा हो शैख़ साहब को क़सम ख़ुदा की वही दहरिया निकलता है तुम्हारे शहर में क्या कर रहे हैं मेरे लोग गली गली से मिरा आश्ना निकलता है वही तो शहर है 'ख़ालिद' नक़ाब-पोशों का हर आस्तीं से जहाँ आइना निकलता है