बे-कराँ समझा था ख़ुद को कैसे नादानों में था आसमाँ बिखरा तो हर-सू शबनमी दानों में था मैं ने जिस ज़ीने पे रक्खा पा तो मुझ को डस गया जब भी दाना मैं ने फेंका साँप के ख़ानों में था फिर कोई मौज-ए-बला कैसे मिरा सर ले गई ऐ ख़ुदा मेरे ख़ुदा तू भी निगहबानों में था इक लहू की बूँद थी लेकिन कई आँखों में थी एक हर्फ़-ए-मो'तबर था और कई मानों में था सोचते हैं किस तरह इस शहर में जीते रहे आस्तीं में साँप थे और ज़हर पैमानों में था जाने कैसी थी 'मुजीबी' आग उस के लम्स की जिस्म का सोना पिघल कर सब मिरी रानों में था