मुजस्सम दाग़-ए-हसरत हूँ सरापा नक़्श-ए-इबरत का मुझे देखो कि होता है यही अंजाम उल्फ़त का उन्हें शौक़-ए-दिल-आज़ारी हमें ज़ौक़-ए-वफ़ादारी ख़ुदा-हाफ़िज़ है अब अपने किशोर-ए-कार-ए-उल्फ़त का विसाल-ए-यार की ऐ दिल कोई पुर-ज़ोर कोशिश कर हवा-ए-आह से पर्दा उठा दे शाम-ए-फ़ुर्क़त का दिल-ए-पुर-शौक़ ने डाला है मुझ को किस कशाकश में इधर है हद की बे-सब्री उधर वअ'दा क़यामत का तुम ऐसे बे-ख़बर भी शाज़ होंगे इस ज़माने में कि दिल में रह के अंदाज़ा नहीं है दिल की हालत का जहाँ में चार दिन रह कर फ़क़त बू-ए-वफ़ा देना गुलों से मैं सबक़ लेता हूँ आईन-ए-सोहबत का लगा रखता है उस की नज़्र को चश्म-ए-तमन्ना ने वो इक आँसू कि मजमूआ है सारी दिल की ताक़त का मिरी क़ुदरत से अब इख़्फ़ा-ए-राज़-ए-इश्क़ बाहर है कि रंग आने लगा है आँसुओं में ख़ून-ए-हसरत का इक आह-ए-सर्द भर लेता हूँ जब तुम याद आते हो ख़ुलासा किस क़दर मैं ने किया है रंज-ए-फ़ुर्क़त का वो दिल है बज़्म-ए-आलम में 'नज़र' इक साज़-ए-बशकस्ता न छेड़े तार-ए-हस्ती पर जो नग़्मा उस की क़ुदरत का