बे-क़रारी क़रार है मुझ को दिल के ज़ख़्मों से प्यार है मुझ को इन दिनों हालत-ए-जुनूँ में हूँ मुझ पे अब इख़्तियार है मुझ को देख वारफ़्तगी-ए-हालत-ए-हाल अपनी वहशत से प्यार है मुझ को अब तिरी याद भी नहीं आती क्यों तिरा इंतिज़ार है मुझ को ऐ मिरी जान तू ने सोचा है तुझ पे क्यों ए'तिबार है मुझ को मैं ने वो बात जो कही ही नहीं वो बहुत नागवार है मुझ को एक कश्ती की है तलब 'राही' इश्क़ दरिया के पार है मुझ को