बे-कसी से मरने मरने का भरम रह जाएगा वो ज़रूर आएँगे जब आँखों में दम रह जाएगा क्या ख़ुशी में ज़िंदगी का होश कम रह जाएगा ग़म अगर मिट भी गया एहसास-ए-ग़म रह जाएगा हाए वो इक आलम-ए-बे-ताबी-ए-पिन्हाँ कि जब फ़ासला मंज़िल से अपना दो-क़दम रह जाएगा छेड़ दी मैं ने अगर रूदाद-ए-हुस्न-ए-शश-जिहत ना-मुकम्मल क़िस्सा-ए-दैर-ओ-हरम रह जाएगा