बे-ख़याली में न जाने क्या से क्या लिखती रही एक पत्थर को मोहब्बत का ख़ुदा लिखती रही बारहा मज़लूम ग़ुंचों को तड़पता देख कर ज़र्द पत्तों पर लहू से कर्बला लिखती रही कारवाँ लुटने पे अब ख़ुद से बहुत बेज़ार हूँ जाने क्यों मैं रहज़नों को रहनुमा लिखती रही वो सर-ए-बाज़ार सौदा-ए-वफ़ा करता रहा नाम जिस का मैं हमेशा बा-वफ़ा लिखती रही बेबसी की शाम को जब मुख़्तसर लिखना पड़ा दर्द के सहरा में शाम-ए-कर्बला लिखती रही संग से भी सख़्त निकला आख़िरश वो दिल बहुत उम्र भर जिस को 'शबीना' आइना लिखती रही