बे-नाम दयारों का सफ़र कैसा लगा है अब लौट के आए हो तो घर कैसा लगा है कैसा था वहाँ गर्म दो-पहरों का झुलसना बरसात-रुतों का ये नगर कैसा लगा है दिन में भी दहल जाता हूँ आबाद घरों से साया सा मिरे साथ ये डर कैसा लगा है होंटों पे लरज़ती हुई ख़ामोश सदा का आँखों के दरीचों से गुज़र कैसा लगा है आँगन में लगाया था शजर चाव से मैं ने फलने पे जो आया तो समर कैसा लगा है