बे-नियाज़ी से मुदारात से डर लगता है जाने क्या बात है हर बात से डर लगता है साग़र-ए-बादा-ए-गुल-रंग तो कुछ दूर नहीं निगह-ए-पीर-ए-ख़राबात से डर लगता है दिल पे खाई हुई इक चोट उभर आती है तेरे दीवाने को बरसात से डर लगता है ऐ दिल अफ़साना-ए-आग़ाज़-ए-वफ़ा रहने दे मुझ को बीते हुए लम्हात से डर लगता है हाथ से ज़ब्त का दामन न कहीं छुट जाए आप की पुर्सिश-ए-हालात से डर लगता है मैं जो उस बज़्म में जाता नहीं 'अशअर' मुझ को अपने सहमे हुए जज़्बात से डर लगता है