बे-शग़ल न ज़िंदगी बसर कर गर अश्क नहीं तो आह सर कर दे तूल-ए-अमल न वक़्त-ए-पीरी हुई सुब्ह फ़साना मुख़्तसर कर कुछ तुर्फ़ा मरज़ है ज़िंदगी भी इस से जो कोई छुटा सो मर कर काबा के सफ़र में क्या है ज़ाहिद बन जाए तो आप से सफ़र कर क्या देखे है आईने को प्यारे ईधर भी तो एक दम नज़र कर वो बाइस-ए-ज़ीस्त शायद आ जाए ऐ जान तू जाइयो ठहर कर फ़ुर्सत है ग़नीमत आज ग़ाफ़िल जो हो सके नफ़अ या ज़रर कर ये दहर है कारगाह-ए-मीना जो पाँव रक्खे तू याँ सो डर कर तामीर पे घर की मर न ऐ दिल 'क़ाएम' की तरह दिलों में घर कर