बे-सूद एक सिलसिला-ए-इम्तिहाँ न खोल सब देख देखता ही चला जा ज़बाँ न खोल अंदर का ही न हो ज़रा बाहर भी देख ले दिल ख़ून है तो आँख पे ख़ूनीं समाँ न खोल इक गर्द छाएगी तिरे मोमी दिमाग़ पर थमने दे आँधियों को अभी खिड़कियाँ न खोल छुप जाएगा कहाँ तिरे हिस्से का आफ़्ताब ऐ साया-गर्द सर पे कोई साएबाँ न खोल इम्कान हो तो कर ले हवा से मुसालहत बे-फ़ाएदा है वर्ना कोई बादबाँ न खोल उन से यक़ीं की दौलत-ए-नायाब माँग तू आँखों पे अपनी कोई फ़ुसूँ और गुमाँ न खोल 'मंज़ूर' हर्फ़ हर्फ़ क़लम का हिसाब दे लेकिन फ़ुज़ूल दफ़्तर-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ न खोल