भेजता हूँ हर रोज़ मैं जिस को ख़्वाब कोई अन-देखा सा उस की आँखें सारी ख़ुशबू उस का बदन आईना सा उस ने बस इतना ही पूछा सब्ज़ चिनार अब कितने हैं सर से पा तक लरज़ उठा मैं दिल पे गिरा इक शोला सा चट्टानों के सीने पर भी खुल कर जो मुस्काता है सर-मस्ती का सरचश्मा है वो इक पौदा नन्हा सा लोगो लब खोलो कुछ बोलो झेलम है मटियाला क्यूँ मैं ने जब इस को देखा था ये था इक आईना सा बर्फ़ शगूफ़ों के मौसम में काश इक बार आ जाते तुम मेरे ख़तों की ख़ुशबुओं का होता कुछ अंदाज़ा सा फिर भी ऐ 'मंज़ूर' किसी पर हाथ न अब तक उट्ठा मेरा लड़ने का फ़न सीख लिया है गो मैं ने भी थोड़ा सा