बेताब हैं किसी की निगाहें नक़ाब में हैं बिजलियाँ कि कौंद रही हैं सहाब में लिक्खूँगा ख़त में ख़ूब अदू की बुराइयाँ हो कर ख़फ़ा वो कुछ न लिखेंगे जवाब में हम को है उन की फ़िक्र तो उन को अदू की फ़िक्र दोनों हैं एक सिलसिला-ए-इज़्तिराब में उस छेड़ के निसार कि सुन कर सवाल-ए-वस्ल आईना रख दिया मिरे आगे जवाब में यारों मैं बू-ए-मेहर-ओ-मोहब्बत नहीं 'नसीम' क्या ख़ाक उड़ रही है जहान-ए-ख़राब में