गड़े मर्दों ने अक्सर ज़िंदा लोगों की क़यादत की मिरी राहों में भी हाइल हैं दीवारें क़दामत की नई किरनें पुराने आसमाँ में क्यूँ जगह पाएँ वो काफ़िर है कि जिस ने चढ़ते सूरज की इबादत की पुरानी सीढ़ियों पर मैं नए क़दमों को क्यूँ रखूँ गिराऊँ किस लिए छत सर पे बोसीदा इमारत की तिरा एहसास भी होगा कभी मेरी तरह पत्थर निकल जाएगी आईने से परछाईं नज़ाकत की वो मेरा बुत था जिस को मैं ने अपने हाथ से तोड़ा कि बरसों की ये मेहनत एक लम्हे में अकारत की अगर है नाम की ख़्वाहिश तो दीवारों पे चस्पाँ कर बना कर झूट के रंगों से तस्वीरें सदाक़त की अभी सीनों में लहराते हैं मेरी याद के परचम अभी तक सब्त हैं मोहरें दिलों पर बादशाहत की अभी सब हर्फ़ ताज़ा हैं मुकरता क्यूँ है मा'नी से स्याही ख़ुश्क भी होने नहीं पाई इबारत की कोई मीठे फलों की आस में क्यूँ तल्ख़ दिन काटे किसे फ़ुर्सत है 'साजिद' आज-कल सब्र-ओ-क़नाअत की