तुझे देखे ज़रा भी जिस को शक हो उस की सनअ'त में नज़र आता है क़ुदरत का नमूना तेरी सूरत में फ़ना के बाद भी रौशन रहेगा चेहरा-ए-आशिक़ न फ़र्क़ आएगा हरगिज़ तेरे बीमारों की सूरत में नतीजा ख़ाक में मिल जाएगा शब-ज़िंदा-दारी का अगर भूले से भी झपकी पलक शब-हा-ए-फ़ुर्क़त में मज़ा आता है दिल को बुलबुल-ए-शैदा के नालों से हवाले मेरे अफ़्सानों के हैं उस की हिकायत में ज़हे-बख़्त-ए-रसा उन के जो पहोंचे क़ुर्ब में तेरे बड़े आराम से हैं साया-ए-दामान-ए-दौलत में नज़र को कौन क़स्र-ए-यार तक पहुँचाए देता है लगा दी किस ने ऐसी दूरबीं चश्म-ए-बसीरत में बनाता है ग़ुबार-ए-दश्त अपनी चश्म का सुर्मा तिरे मजनूँ को ऐ लैला नई सूझी है वहशत में मय-ए-गुल-गूँ की वाइज़ से मज़म्मत सुन के हँस देना चला आता है ये दस्तूर यारान-ए-तरीक़त में मैं ऐ 'बेताब' ख़ुद मजबूर हूँ कुछ बन नहीं पड़ता टपक पड़ते हैं आँसू ख़ुद-बख़ुद आँखों से फ़ुर्क़त में