बे-तकल्लुफ़ मिरा हैजान बनाता है मुझे सामने तेरे कहाँ बोलना आता है मुझे वो उदासी कि बिखरने से नहीं बच सकता और तिरा लम्स कि चुनता चला जाता है मुझे अब मिरे लौट के आने का कोई वक़्त नहीं यूँ भी अब घर से सिवा कौन बुलाता है मुझे गीत ही सिर्फ़ लबों पर हो तो आ जाए भी नींद वो कोई और कहानी भी सुनाता है मुझे क़त्अ कर के भी तअ'ल्लुक़ वो कहाँ चैन से है इस के अस्बाब-ओ-दलाएल भी गिनाता है मुझे ख़ुद से वो कौन से शिकवे हैं कि जाते ही नहीं अपने जैसों पे यक़ीं क्यूँ नहीं आता है मुझे और इक बार ज़रा छेड़ मिरी रूह के तार इन सुरों में तो कोई और भी गाता है मुझे इक तिरा दर्द है अच्छे हैं मरासिम जिस से बस वही है कि जो पलकों पे बिठाता है मुझे मैं किसी दूसरे पहलू से उसे क्यूँ सोचूँ यूँ भी अच्छा है वो जैसा नज़र आता है मुझे हो सबब कुछ भी मिरे आँख बचाने का मगर साफ़ कर दूँ कि नज़र कम नहीं आता है मुझे ना-ख़ुदाओं ने तो ख़ुश-फ़हमियाँ बख़्शी हैं फ़क़त मैं हूँ ख़तरे में ये तूफ़ाँ ही बताता है मुझे