बे-तअल्लुक़ ज़िंदगी भी ज़िंदगी होती है क्या साज़-ए-दिल ख़ामोश हो तो नग़्मगी होती है क्या यक-ब-यक तारीक दिल में क्यों उजाला हो गया याद-ए-यार-ए-मेहरबाँ से रौशनी होती है क्या देख कर तुझ को करेगा कोई क्यों सैर-ए-चमन गुल के चेहरे पर भी ऐसी ताज़गी होती है क्या जिस ने तेरे हुस्न की लौ देख ली समझा है वो क्यों चमकते हैं सितारे चाँदनी होती है क्या मस्त आँखों की क़सम क्यों रह गया हाथों में जाम मय-कदे में बिन-पिए भी मय-कशी होती है क्या वस्ल हो या हिज्र हो या इंतिज़ार-ए-यार हो दर्द-ए-दिल में हसरतों में कुछ कमी होती है क्या सादगी में दिलबरी है दिलबरी में सादगी कोई क्या समझे कि उन की सादगी होती है क्या याद तेरी आई है परदेस में कितनी 'हबीब' दूरी-ए-मंज़िल में कोई दिलकशी होती है क्या