बे-वज्ह नहीं उन का बे-ख़ुद को बुलाना है आईना-ए-हैरत से महफ़िल को सजाना है यार ग़म-ए-हस्ती का है तज़्किरा ला-हासिल मजबूर का जीना ही इक बार उठाना है मुझ से जो सर-ए-महफ़िल तुम आँख चुराते हो क्या राज़-ए-मोहब्बत को अफ़्साना बनाना है हालत के तग़य्युर पर हो मातम-ए-माज़ी क्यूँ इक वो भी ज़माना था इक ये भी ज़माना है है गोशा-ए-तन्हाई मंज़ूर मुझे 'बेख़ुद' इस बज़्म में जाना तो जी और जलाना है