अब गुमाँ है न यक़ीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं आसमाँ कुछ भी नहीं और ज़मीं कुछ भी नहीं मिट गया दिल से अक़ीदत का भरम या'नी अब उस का दर कुछ भी नहीं अपनी जबीं कुछ भी नहीं क्यों न यक-रंगी-ए-हालात से जी उकताए अब कोई बज़्म-ए-तरब दौर-ए-हज़ीं कुछ भी नहीं अब तो हर हुस्न-ओ-नज़र रंग-ओ-महक साज़-ओ-सुख़न लाख अच्छे हों मगर ख़ुद से हसीं कुछ भी नहीं जाने किस तौर है तक़्सीम-ए-करम अल्लाह का है कहीं कितना ही कुछ और कहीं कुछ भी नहीं आस बँधती है ज़रा देर उसे तकने में कौन कहता है सर-ए-अर्श-ए-बरीं कुछ भी नहीं आ ही जाएँगे तह-ए-दाम-ए-अजल सब इक दिन हो भले तख़्त-नशीं ख़ाक-नशीं कुछ भी नहीं कितना पुर-शोर था अन्फ़ास का बहता दरिया क्यों ये कहता है दम-ए-बाज़-पसीं कुछ भी नहीं मिट गया जिस्म हुई रूह भी रुख़्सत कब की अब यहाँ कोई मकाँ है न मकीं कुछ भी नहीं ख़ुद से किस तौर सहे शख़्स वो दूरी अपनी है ब-जुज़ अपने 'अमर' जिस के क़रीं कुछ भी नहीं