बेवफ़ा मैं भी सही तुझ में वफ़ा भी तो नहीं ज़िंदगी तुझ से मगर मुझ को गिला भी तो नहीं मुझ से बेहतर कोई मिल जाए तुझे मुमकिन है मुझ को तुझ जैसा अभी कोई मिला भी तो नहीं क्यों न भटकूँ मैं कि सुनसानों भरी वादी में जो उभारे मुझे अब ऐसी सदा भी तो नहीं जब ये उम्मीद थी जो माँगूँगा होगा मक़्बूल हाथ भी उठ न सके लब पे दुआ भी तो नहीं मैं भी ख़ामोश रहा मुझ को है एहसास मगर और कहता भी क्या कुछ तुम ने कहा भी तो नहीं अब परख मेरी वफ़ाओं की भला कैसे हो अब वो पैमाना हो क्या तुझ में जफ़ा भी तो नहीं हम को औरों में बहुत ऐब नज़र आता है जो थी इस देश में पहले वो फ़ज़ा भी तो नहीं कम नहीं मर्द तो औरत भी कहाँ कुछ कम है इस में गर शर्म नहीं उस में हया भी तो नहीं तुझ से ऐ दोस्त मुझे और हो उम्मीद भी क्या हक़-शनासी का वो अब दौर रहा भी तो नहीं एक मुद्दत से तरसती हैं निगाहें उस को छोड़ कर मुझ को मगर दूर गया भी तो नहीं ढूँढना भी है उसे उम्र की हद तक 'अनवर' और ढूँडूँ भी कहाँ कोई पता भी तो नहीं