बेज़ार ख़ुद न होते अगर ज़िंदगी से हम ऐ ज़ब्त-ए-ग़म फ़रेब न खाते किसी से हम था अरसा-ए-हयात मोहब्बत में हम पे तंग करते रहे निबाह मगर ज़िंदगी से हम शायद निगाह-ए-लुत्फ़ हमारी तरफ़ भी हो यूँ तक रहे हैं आज उन्हें बे-कसी से हम ले आई बे-ख़ुदी ये हमें किस मक़ाम पर मालूम हो रहे हैं जहाँ अजनबी से हम जब तक न दे नजात ग़म-ए-ज़िंदगी हमें लड़ते रहेंगे कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम ऐ बेवफ़ा वफ़ा का हमारी न दे जवाब तुझ को समझ रहे हैं तिरी बे-रुख़ी से हम 'हसरत' को तू ने राह-ए-मोहब्बत में खो दिया बाज़ आए ख़िज़्र-ए-राह तिरी रहबरी से हम