ब-फ़ैज़-ए-आगही ये क्या अज़ाब देख लिया कि ख़ुद ही अपने किए का हिसाब देख लिया ये नस्ल नस्ल मसाफ़त बहल रही है यूँही सराब जागते सोते में ख़्वाब देख लिया दिलों की तीरगी धोने को लोग उठे हैं जब छतों पर उतरा हुआ आफ़्ताब देख लिया सरों से ताज बड़े जिस्म से अबाएँ बड़ी ज़माने हम ने तिरा इंतिख़ाब देख लिया वो फ़ाख़्ता जिसे लाना था अम्न का पैग़ाम उड़ी नहीं थी कि उस ने उक़ाब देख लिया कभी वो खुल के कभी सरसरी मिला हम से कभी हिलाल कभी माहताब देख लिया किताब पढ़ने की फ़ुर्सत यहाँ किसे 'अंजुम' बहुत हुआ तो फ़क़त इंतिसाब देख लिया