भला किन आँखों से अब ये रंग-ए-बहार देखूँ नज़र उठाते ही बाग़ को शो'ला-ज़ार देखूँ कभी वो आलम कि उस तरफ़ आँख ही न उट्ठे कभी ये हालत कि उस को दीवाना-वार देखूँ ये सारी बे-मंज़री सवाद-ए-सुकूत से है सदा वो चमके तो धुंद के आर-पार देखूँ ये कैसा ख़ूँ है कि बह रहा है न जम रहा है ये रंग देखूँ कि दिल जिगर का फ़िशार देखूँ तिरे सिवा भी हज़ार मंज़र हैं देखने को तुझे न देखूँ तो क्यों तिरा इंतिज़ार देखूँ