भले ही मिरा हौसला पस्त होता मुक़ाबिल तो कोई ज़बरदस्त होता गुज़ारा तो पहले भी करता ही था मैं मज़ा जब था बिल्कुल तही-दस्त होता तिरी दस्त-गीरी कहाँ और कहाँ मैं तिरा आसरा ही सर-ए-दस्त होता मैं फूटा था जिस शाख़ पर बन के कोंपल उसी शाख़ में काश पैवस्त होता गिलास एक था पीने वाले कई थे तो क्या मुंतक़िल दस्त-दर-दस्त होता कहीं हम को बे-दख़्ल कर दे न कोई नहीं हम से घर का दर-ओ-बस्त होता तुम्ही हो जो लाए हो मुझ को यहाँ तक न तुम नीच होते न मैं पस्त होता कहा तू ने माना न अफ़सोस अपना! बुलंदी पे 'राशिद' ब-यक-जस्त होता