भली लगती है ऐसी बे-बहा शय क़द्र-दानों पर जवानी मुफ़्त में बर्बाद होती है जवानों पर फ़लक तो बिजलियों की तर्बियत कर ही नहीं पाता ज़मीं-ज़ादे भी पत्थर फेंकते हैं आशियानों पर जहाँ हम हैं वहाँ होना न होना ख़ुश-गुमानी है ख़ुदा की रहमतें नाज़िल हों हम से ख़ुश-गुमानों पर दुकानें फैल कर दीवार बन जाती हैं रस्ते में लगी रहती हैं लेकिन रौनक़ें क्या क्या दुकानों पर सवा नेज़े पे सूरज आ भी जाए हम न बोलेंगे क़यामत बे-सबब ही टूटती है ख़स्ता-जानों पर ज़बाँ को काट देते हैं कि दिल का हाल कहती है ये कैसा वक़्त नाज़ुक आ पड़ा है तर्जुमानों पर कुहिस्तानी मुहिम हो या मसाफ़त दश्त-ओ-सहरा की पहुँच जाते हैं सारे रास्ते अपने ठिकानों पर उतरते ही बला जिन में उलझ कर बे-अमाँ होगी लगा रक्खी हैं ऐसी सांग़ियाँ हम ने मचानों पर ये क्या 'शाहीन' हर सूरत मुजस्सम हो के रह जाए कभी तो आग बरसे साल-दीदा सर्द-ख़ानों पर