भर जाने दो ज़रा मिरा ज़र्फ़-ए-जिगर अभी ज़िंदान का न खोलना तुम आ के दर अभी उतरी है पात पात पे पागल रुतों की धूप चुँधिया रही है इस लिए मेरी नज़र अभी मुद्दत हुई है आतिश-ए-दिल को बुझे हुए साँसों पे है मगर वो धुएँ का असर अभी उठने को रंज-ओ-ग़म के बगूले हैं धूप में सहरा-ए-चश्म में न बना रहगुज़र अभी इक लाज ही नहीं ये वफ़ा को ख़िराज है बदली में चुप रहा है भला क्यों क़मर अभी या'नी ये मुज़्तरिब सी नज़र बे-सबब नहीं ख़त ले के आ रहा है कोई नामा-बर अभी 'आदिल' अभी तो आया निकल कर है चाह से रस्ते पे उलझनों के नहीं पाँव धर अभी