ख़ुद से अब मुझ को जुदा यूँ ही मिरी जाँ रखना हर घड़ी ख़्वाब को तुम ख़्वाब-ए-परेशाँ रखना अब इबादत की यही एक है सूरत बाक़ी आँख को बंद किए होंट सना-ख़्वाँ रखना ख़्वाब को ज़ेहन कहाँ है न यहाँ है न वहाँ दिल के आँगन में कहीं गोर-ए-ग़रीबाँ रखना बरहना रहने की तौफ़ीक़ कहाँ से लाए ख़ुद को आया ही नहीं बे-सर-ओ-सामाँ रखना राह चलते हैं तो दीवार उठा लेते हैं कितना दुश्वार है आसाँ को भी आसाँ रखना क्या सलीक़ा था वो 'ग़ालिब' हों कि हों 'मीर'-ओ-'फ़िराक़' हिज्र में वस्ल का वो नक़्श-ए-गुरेज़ाँ रखना