ब-हर-आलम बराबर लिख रहा हूँ मैं प्यासा हूँ समुंदर लिख रहा हूँ सदफ़ अंदर सदफ़ थे जो मआ'नी उन्हें गौहर-ब-गौहर लिख रहा हूँ नहीं ये शाइ'री हरगिज़ नहीं है मैं ख़ुद अपना मुक़द्दर लिख रहा हूँ हर इक तिफ़्ल-ए-क़लम ये सोचता है मैं कल दुनिया से बेहतर लिख रहा हूँ नज़र आती नहीं जो दिल की दुनिया उसे मंज़र-ब-मंज़र लिख रहा हूँ मय-ए-लब से मुझे ख़ुश करने वालो तुम्हारे नाम कौसर लिख रहा हूँ जो मस्ती है मिरा मक़्सूम 'सहबा' उसे साग़र-ब-साग़र लिख रहा हूँ