भरे मोती हैं गोया तुझ दहन में कि दुर-रेज़ी तू करता है सुख़न में बहार-आरा वही है हर चमन में उसी की बू है नसरीन-ओ-समन में न फिर ईधर उधर नाहक़ भटकता कि है वो जल्वा-गर तेरे ही मन में जहाँ वो है नहीं वाँ कुफ़्र ओ इस्लाम अबस झगड़ा है शैख़ ओ बरहमन में हुई जाती है पानी शर्म से शम्अ मगर वो माह आया अंजुमन में छुड़ाया था निपट मुश्किल से फिर आह दिल अटका उस की ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन में जुनूँ ने दस्त-कारी ऐसी भी की न था गोया गरेबाँ पैरहन में मरा जाता है जिस ग़ैरत में दरिया गिरा किस का है दिल चाह-ए-ज़क़न में मगर परवाना जल कर हो गया ख़ाक कि रो-रो शम्अ जलती है लगन में जो सुनते थे दम-ए-ईसा का एजाज़ सो देखा हम ने वो तेरे सुख़न में न देखा उस परी-जल्वा को 'बेदार' रहा मशग़ूल तू याँ मा-ओ-मन में