चमन-ए-लाला ये उल्फ़त तिरी दिखलाती है सैंकड़ों दाग़ हैं और एक मिरी छाती है गरचे तूती भी है शीरीं-सुख़नी में मुम्ताज़ पर तिरी बात की लज़्ज़त को कहाँ पाती है बदली आ जाती है इस लुत्फ़ से ख़ुर्शीद पे कम ज़ुल्फ़ मुँह पर तिरे जिस आन से खुल जाती है गुल ही तन्हा न ख़जिल है रुख़-ए-रनगीं से तिरे नर्गिस आँखों के तिरे सामने शरमाती है मैं कहाँ और तिरा वस्ल ये है बस ऐ गुल गाह बे-गाह तिरी बू तो सबा लाती है रात थोड़ी सी है बस जाने दे मिल हँस कर बोल ना-ख़ुशी ता-ब-कुजा सुब्ह हुई जाती है रौशनी ख़ाना-ए-आशिक़ की है तुझ से वर्ना तू न हो तो शब-ए-महताब किसे भाती है सादगी देख तो दिल उस से करे है यारी नागनी देख के जिस ज़ुल्फ़ को बल खाती है मह-रुख़ाँ क्या हैं कि हो आ के मुक़ाबिल 'बेदार' काँपती सामने जिस शोख़ के बर्क़ आती है