भरने को जो दामन कोई फूलों से चला हो क्या जानिए उस शख़्स का क्या हाल हुआ हो टूटे हुए कुछ ख़्वाब थे पैवस्ता-ए-तक़दीर किरदार में उन का कोई रेज़ा न चुभा हो ऐसा भी हुआ है कभी इस दहर में ला कर इंसान की क़िस्मत को ख़ुदा भूल गया हो जिस आँख ने इस हाल को पहुँचाया हो क्या ख़ूब ये हाल उसी आँख से देखा न गया हो किस तरह फिर आमादगी-ए-क़ल्ब से मलिए दुखते हुए एहसास का जब ज़ख़्म हरा हो बे-रब्ती-ए-अन्फ़ास के दौरान तिरी याद यूँ जैसे मसीहा कोई रस्ते में मिला हो इक बार 'नसीम' ऐसी कोई कीजिए ख़्वाहिश जो शौक़ के ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा हो